शाम की गोधुली में वो नदी किनारे अकेला बैठा हुआ था
एक फटा हुआ कोट पेहेन रखा था उसने
शहर की भाग दौड़ से दूर ... नशे में चूर
कुछ यादें ... कुछ बातें उसे विचलित कर रही थी
एक फटा हुआ कोट पेहेन रखा था उसने
शहर की भाग दौड़ से दूर ... नशे में चूर
कुछ यादें ... कुछ बातें उसे विचलित कर रही थी
शायद समुद्र से कुछ सुकून ढून्ढ रहा था वो,
कुछ दर्द था उसे .. कुछ कहना चाहता था उससे वो
कुछ टूटे सपने ... कुछ अनसुलझे रिश्ते
कुछ दर्द था उसे .. कुछ कहना चाहता था उससे वो
कुछ टूटे सपने ... कुछ अनसुलझे रिश्ते
और कुछ यादें आज उसे व्याकुल कर रहे थे
जीवन उसके लिए हमेशा से ही एक पहेली थी ... आज भी थी
इस सच्चाई को वो जानता था
दुनिया को समझना उसने कब का छोर दिया था..
इस सच्चाई को वो जानता था
दुनिया को समझना उसने कब का छोर दिया था..
अचानक एक बासुरी सुनाई दी उसे ...
नज़र ऊपर उठाई तो देखा,
बाँसुरीवाला बच्चों से घिरा हुआ बांसुरी बजा रहा है
नज़र ऊपर उठाई तो देखा,
बाँसुरीवाला बच्चों से घिरा हुआ बांसुरी बजा रहा है
धुन कुछ जानी पहचानी सी लगी उसे
शायद इलाहाबाद की गंगा तट पे बैठे हुए
बचपन की स्मृति उसके आँखों में आ गयी
के जब बगलवाली ताई के साथ वो मेले में आया करता था
बचपन की स्मृति उसके आँखों में आ गयी
के जब बगलवाली ताई के साथ वो मेले में आया करता था
उसे याद आई वो पुरानी पुश्तैनी हवेली जिसके बागीचे में वो गिलहरियों के साथ खेला करता था
वो इमली का पेड़ जो शायद उसने बचपन में लगाया था
वो कमरा जिसने उसे बड़ा होता हुआ देखा,
वो दाई जिसने उससे बचपन से पाला था
वह छत जिसकी मुंडेर पे पतंग उड़ाते हुए
वो दाई जिसने उससे बचपन से पाला था
वह छत जिसकी मुंडेर पे पतंग उड़ाते हुए
वो पास की एक लड़की को देखा करता था
शायद २१ का था वो जब उसकी शादी हुयी ...
सिर्फ हाथ हिला के रह गया वो ... कभी कह न सका अपनी बात
शायद इसी इंतज़ार में रह गया की
सिर्फ हाथ हिला के रह गया वो ... कभी कह न सका अपनी बात
शायद इसी इंतज़ार में रह गया की
कब उसकी खामोशी को वो समझ जायेगी
अब न तो वो हवेली रही , न वो मुंडेर और न इलाहाबाद की वो गलियाँ
पिता के मृत्यु के बाद नीलाम कर दी थी उसने वो हवेली ..
ये सोच कर की उसके साथ उसकी यादें भी मिट जायेंगी ..
पिता के मृत्यु के बाद नीलाम कर दी थी उसने वो हवेली ..
ये सोच कर की उसके साथ उसकी यादें भी मिट जायेंगी ..
गोधुली अब थोड़ा ढल चुकी थी ...
रात आने को थी
निशा का तिमिर अब चारों ओर व्याप्त था ,
निशा का तिमिर अब चारों ओर व्याप्त था ,
और चाँद उसे अपने कौमदी से प्रज्ज्वलित कर रहा था..
जवानी उसकी ऐसे ही काट दी उसने
कुछ नज़्म लिखे ... कुछ सपने देखे ..
कुछ नज़्म लिखे ... कुछ सपने देखे ..
और अपने भ्रमों को टूटते काफी करीब से देखा उसने..
कुछ बातें कहीं जो जमाने ने सुनने में दिलचस्पी नहीं दिखाई
एक रिश्ता जिया जो अधूरा सा रह गया ..
कुछ बातें कहीं जो जमाने ने सुनने में दिलचस्पी नहीं दिखाई
एक रिश्ता जिया जो अधूरा सा रह गया ..
अच्छी तरह याद है उसे वो दिन जब दोनों साथ में बारिश में भींगे थे एक दुसरे का हाथ थामे हुए ..
के जब दोनों ने कागज़ की कश्तियाँ बनाकर बारिश के पानी में उतारीं
के जब दोनों ने कागज़ की कश्तियाँ बनाकर बारिश के पानी में उतारीं
ये सोच कर की किसी दिन वो समुंदर में जा मिलेंगे..
के किस तरह आईने में दोनों ने पहली बार साथ में एक दुसरे को देख कर
कसमें खायी थी की कभी न जुदा होंगे ...
के किस तरह आईने में दोनों ने पहली बार साथ में एक दुसरे को देख कर
कसमें खायी थी की कभी न जुदा होंगे ...
के किस तरह खिड़की के कांच पे
ओस की बूंदों से नाम लिखा था अपना और उसका ,
ओस की बूंदों से नाम लिखा था अपना और उसका ,
कुछ मुरझाये हुए ख़त उसके लिखे हुए
आज भी उसके कोट की ऊपर वाली जेब में मेह्फूस थे...
आज भी उसके कोट की ऊपर वाली जेब में मेह्फूस थे...
सिहरन से हो रही थी उसे ...
आज सच में समुद्र उससे बातें कर रहा था ...
आज सच में समुद्र उससे बातें कर रहा था ...
उसकी वेदना को सुन रहा था ...
गुजरे हुए लम्हों के सूखे पत्ते टटोल रहा था वो...
जीवन के गिर्हों में उलझ सा गया था ... थक सा गया था वो ..
उनको खोल कर सुलझाने की कोशिश कर रहा था ...
आँखें बहते बहते सूख गयी थी अब उसकी ...
उफ़ ...वो क्या मौसम था ... वो क्या लम्हे थे
वो क्या लफ्ज़ थे जो आज भी कानों में सुनाई दे रहे थे उसे
शायद इसी का नाम ज़िन्दगी है ..
हाँ , शायद इसी का नाम ज़िन्दगी है ....
ये सोच कर आकाश की ओर टिमटिमाते तारों को देखा ...
एक रात फिर कट गयी ...
कुछ सवालों के जवाब वो आज भी फिर नहीं ढून्ढ सका ....
कुछ सवालों के जवाब वो आज भी फिर नहीं ढून्ढ सका ....
सच ... कुछ रिश्ते ... कुछ लम्हें फिर कभी लौट कर नहीं आते ...
कुछ ज़ख्म कभी भर नहीं पाते ...
बस अपनी स्मृतियाँ छोर जाते हैं .... |
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