Saturday, June 23, 2012

आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ... ?



आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ...?
वो कायर व्यवस्था जहां किसी औरत पर हाथ उठा के हम खुद को वीर गाथा गाते हैं ...
वो समाज जो आज भी रूढ़ीवाद की दलदल में धसा
अपने मैले पैरों को तरफ देखता नहीं क्यूंकि वो उसे गंदे दिखाई देते हैं ...

वो समाज जिसकी चेतना उतनी ही शिथिल है , इतनी ही निर्जीव है
जितना  मेरे गली में लगा हुआ खम्बा ..
वो हिलता नहीं .. पवन के हिलोरे उसे छु कर भी
जगा नहीं पाते .. नींद से .. वो वहीँ है बरसों से स्थिर ..

वो समाज जिसमे एक नव विवाहित जोड़ा यूँ ही गम हो जाते हैं
क्यूंकि समाज के बूढों ने उनका बहिष्कार कर दिया है
जहां कोख में मार दिया गया मेरे मोहल्ले की एक औरत की बच्ची को
आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम

वो समाज जो आज भी बच्चों के छोटे हाथों में
किताबों की जगह मैले बर्तन , भीख के कटोरे और बन्दूक थमा देता है
उन्हें अपाहिज बना देता है .. उन्हें बेच देता है व्यश्या घरों के हवाले
और जब यही बच्चे बड़े हो कर उससे इन सवालों का प्रश्न पूछते हैं
तो  उन्हें अपने से काट कर फेक देता है
ऐसा की जैसे कोई हिस्सा हो शरीर का जो अब नश्वर हो चला है

आखिर किस समाज की बातें करते है हम ,
किस समाज की बातें करते हैं हम
जो स्त्रीयों को पहले वेश्या बनने पे मजबूर करता है और
उसके बाद उन्ही से रिश्ते तोड़ लेता है
उनके घर रात के अँधेरे में जाने वाले
दिन के उजालों में उसे ही जला कर मार देते हैं समाज के कालिक बता कर ...

आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ,
जहां का युंवक अनभिज्ञ है देश की समस्याओं से
उनसे लड़ना तो  दूर .. वो जानना भी नहीं चाहता उनके पनपने के कारण को
वो व्यस्त है अपने नए Smart phone पर games खेलने में
मगन है अपने iPod पे गाने सुनने में
उसे क्या फर्क पड़ेगा

आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ,
जिसने जात-पात पर लोगों को सर पे बिठाया
और कईयों को पैरों तले कुचला ...

जहां किसी कमजोर औरत का बलात्कार कर दिया गया
अपनी वैशियत दिखाने के लिए ..

इतने मज़हब जिस देश में जन्में
आज , वही देश क्यूँ मज़हब की लड़ाईयां लड़ रहा है ?
गुजरात , उड़ीसा और अयोध्या के दिन देख रहा है
जहां कभी गाँधी , चैतन्य और राम ने जन्म लिया था

आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ,
आखिर किस आधुनिकता की बातें करते हैं हम
क्यूँ बखान करते हैं अपने उन्नति का ..
की जब बुनियादी प्रश्नों के हल आज भी ढून्ढ नहीं पाए हैं हम ..

आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ,
जो गाड़ियों , कारखानों के शोर में उस बूढी औरत की
आवाज़ नहीं सुनता जिसे सड़क पार करना नहीं आता ..
उसे वृद्ध आश्रमों  के हवाले कर देता है .. 


सच तो  ये है की हम
आज भी जकडे हैं इन व्यर्थ के बंधनों में
समाज एक मृगमरीचिका है ,
एक ऐसे स्वार्थी setup की मिथ्या है
जिसके के पास कोई नैतिकता नहीं ..
जिसने अपनी चेतना खो दी है
उसकी आत्मा मर चुकी है
वो न तो मेरा है न तेरा ,
उसकी आवाज़ मर चुकी है ..
या सच कहें तो वो गूंगा हो चुका है ..
उसके आँखों पर अंधविश्वास की काली पट्टी पड़ी है
और उसके हाथ - पांव जकड़े हैं
उसके निजी मोह में ...
वो विद्रोह नहीं कर सकता क्यूंकि
वो कायर है ..
अपनी कायरता छुपाने के लिए
रिवाजों और बंधनों में रहने को मजबूर करता है हमें
ताकि हम प्रश्न न पूछें उसके हुकुमरानों से ..

समाज मैं भी हूँ , समाज तुम भी हो ,
वो  सिर्फ भ्रष्ट नेताओं की देन नहीं  ,
उसके  बाशिंदे  मामूली  इंसान भी  हैं
हाँ , ये सच हैं  की वो  निहत्ते  हैं  या  शायद
अपने हथियारों  , अपने अधिकारों  को  लेकर  जागरूक  नहीं 

आओ ज़रा जागें इस नींद से ,
आओ ज़रा पानी फेंके ज़रा अपनी आँखों पर जोर से
ताकि फिर न सो सके इतनी लम्बी गहरी नींद
की कोई फिर न हम पर करके प्रहार भाग सके
की कोई फिर न कर सके दमन उन् मर्यादाओं का ...
की ताकि कोई भ्रष्ट नेता लूट न सके हमें ,
और खो जाए दुनिया की भीड़ में ..
ताकि कोई हमारे अधिकारों से यूँ ही खेल न सके
कटपुतलियों की तरह ..
खिलौने की तरह उसे तोड़-मरोर कर
फ़ेंक न दे उसे किसी gutter में ..
अगर  हम समाज हैं  
तो इसकी की मरम्मत का ज़िम्मा भी हमारे ही कन्धों  पे  है  ..
ज़ख्म खाने पड़ेंगे तो खायेंगे .. घावों पे मरहम न लगायेंगे
उन्हें ज़िंदा रखेंगे ताकि उसकी टीस हर पल महसूस कर सकें हम
समाज की नीव अगर कमजोर हो चली है तो उसे मज़बूत करना भी हमारा फ़र्ज़ है ..

'मैं तुझे फिर मिलूंगी' -अमृता प्रीतम (My Rendition )

अमृता प्रीतम (August 31, 1919 – October 31, 2005)  की पंजाबी  कविता ' मैं तेन्नु फिर मिलांगी ' सुन कर मन खामोश न बैठ सका ..  कोशिश की है कविता का हिंदी अनुवाद लिख सकूं ... कविता की रूह को कायम रखा है ... साथ ही साथ कुछ अपनी रचना भी डाली है इसमें ...  आशा है , आपको ये कविता पसंद आएगी ... |




मैं तुझे फिर मिलूंगी ....
किधर ..?  किस तरह ..?
ये मालूम नहीं ..
पर , मैं तुझे फिर मिलूंगी ....

शायद तेरे कल्पना की प्रेरणा बन कर
तेरे कैनवस पर उतरूंगी ..
कभी तेरे कैनवस पे एक रहस्यमयी लकीर बनकर खामोश तुझे देखूँगी ...
मैं तुझे फिर मिलूंगी ...

या सूरज की रौशनी बनकर तुझे रोशन करुँगी ...
या रंगों की बाहों में बैठ कर तेरे कैनवस पर बिछ जाऊंगी  ...

कभी तेरी हाथों का कलम बनकर मिलूंगी तुझसे...
कभी उपन्यास की नायिकाओं में मेरा अक्स दिखाई देगा तुझे..
मैं तुझे फिर मिलूंगी ...

या किसी झरने का पानी बन जाऊंगी ..
और एक  शीतल एहसास से तेरे बदन से लिपट जाउंगी ...
तुझे अपने आगोश में समेट लूंगी ...

रात में कभी चाँद की शीतलता दूँगी तुझे ...
कभी जाम का प्याला बन कर तेरे होटों से लग जाउंगी ...
किसी पेड़ की छाया बनूँगी .. तो कभी किसी फूल की खुशबू ..
तेरे बिस्तर की  सिलवटों में नज़र आऊंगी कभी ..

अपने गुफ्तगू में मेरा ज़िक्र तुम अक्सर करोगे ..
मैं तेरे ख्यालों में अक्सर आती रहूंगी  ..

मैं ज्यादा तो नहीं जानती , 
पर इतना जानती हूँ की वक़्त जो भी करेगा हम साथ चलेंगे ...
कहते हैं की इस जिस्म के ख़त्म होने से सारे रिश्ते- नाते ख़त्म हो जाते हैं ...
पर मेरा -तुम्हारा रिश्ता जिस्म के बंधनों से दूर ..
रूह तक जाता है ..
कहते हैं की यादों के धागे काएनात की लम्हों की तरह होते हैं ,
मैं उन् लम्हों को चुनुगी ... उन्हें समेट लूंगी ...
मैं उस धागे को फिर बुनुंगी ..
मैं .. तुझे फिर मिलूंगी ....

यादें - Farewell Poem ...

मैं अक्सर काफी गंभीर कवितायें लिखता हूँ .... अपने Farewell के अवसर पे कुछ हल्का लिखने की सूझी तो ये कविता ह्रदय से निकली .. ये कविता मेरे चार सालों के अनुभव का समावेश जो मैंने अपने कॉलेज में बिताये...आशा करता हूँ आपको अच्छी लगेगी ...
भाषा को सरल रखा है ताकि ज्यादा लोग इसे आसानी से समझ सकें ....|



ज़िन्दगी की बिसात पर.. वक़्त की शेह से  .. आज मुझे मात मिली ..
सोचा न था की ये पल .. ये साथ ..
वक़्त यूँ ही सिमट कर रह जाएगा कुछ घंटों के दरम्यान ...
चार साल बीत गए ...
सोचता हूँ की कुछ  लिखूं आज अपने दोस्तों के नाम ... 

गए चार सालों की तरफ जब नज़र फेरता हूँ तो
कई यादें .. कई बातें याद आती हैं ...
यादें जो खट्टी हैं ..यादें जो मीठी हैं ..

याद आता है पहले बार किस तरह सहमे हुए कदम रखा था यहाँ
इस डर से की कहीं मेरी Ragging न की जाएँ ...
आज भी याद है की किस तरह सहेम के हमनें बेल्ट और घडी पेहेनना छोर दिया था
उन् दिनों  seniors  के डर से  ..

वक़्त बढ़ता गया .. अंजानो के इस शेहेर में मुझे कई मेरी तरह दीवाने मिले ..
दोस्ती हुई तो पता चला की इस सफ़र में हम सभी एक ही कश्ती में सवार थे ..
कारवां बढ़ता गया ..
और इसका लुत्फ़ भी बढ़ता गया..
हर दिन को किसी जाम की तरह आखरी कतरे तक पीया..

ज़िन्दगी में कई उतार - चढ़ावों को देखा ...
कुछ खुद को बदला .. कुछ औरों को बदलते हुए देखा ...
कई मुकामों को हासिल किया .. कई पीछे छूट गए ...
इन दीवारों के बीच कई रातें .. कई शामें गुजार दी ...
आज न जाने क्यूँ इनसे दूर होने के ख़याल से आँखें भर गयी हैं ...
एक गहरा रिश्ता सा ह़ो गया है सबसे ..
शायद  आदत सी पड़ गयी है इन् दीवारों की …

वो शामों में किसी चाय की दूकान पे घंटों ठहाके लगाना ..
वो लॉन में बैठ के बेमतलब बातें की बातें करना ...
वो last bench पे बैठ कर क्लास करना ..
वो शरारतें ... वो किस्से ...
सब कुछ आँखों के सामने आज भी उतना ही  जीवंत है...

अब न तो मुझे किसी लड़की से बात करने पे कौन चिढायेगा ..
और न ही कोई मेरी टांग खिचेगा ..
अब मुझे मेरे Birthday  पे न तो कोई GPL देगा ..
और न ही कोई मेरे सड़े जोक्स पे हसेगा ...
हर बात पे  मुझसे party मांगने वाले को देखने को भी तरस जाऊंगा ...
अब मैं अपने juniors  को फ़ालतू के  lectures  भी न दे पाऊंगा ...

Graffiti और Edge सिर्फ शब्द बन के रह जायेंगे मेरे लिए ..
Edge Room की बातें सदा याद आयेंगे मुझे ...

जिस कॉलेज को कभी कम नंबर आने पे कोसा करते थे ...
आज उसी  कॉलेज में कुछ महीने और गुजारने को तरस गए हैं ....
वो first year  का uniform जो कभी मुझे मेरे  Gate keeper की याद दिलाता था ...
आज उसे पेहेन्ने को भी  तरस जाऊंगा ….


तस्वीरों में क़ैद कभी इन् पलों को याद कर यूँ ही हंस पडूंगा कभी ...
कुछ किस्सों को .. कुछ बातों को याद कर शायद मेरी आँखें भर आएँगी ..
सच .. ये सफ़र .. इसके राहियों को मैं कभी भूल न सकूंगा ..
याद आयेगा वो बारिश में भींगना ...
याद आएगी वो चिलचिलाती धुप में घूमना  .. ..
वो सेहर में साथ निकल पढ़ना यूँ ही किसी सफ़र पे  .. 



चार साल तो  सह लिए पर इन् कुछ पलों को सहने में खुद को कमज़ोर पाता हूँ ...
कई semesters , internals , lab submissions  और vivas के बाद
आज सोचता हूँ की जीवन में क्या खोया .. क्या पाया ..
ये रिश्ते ही तो  हैं जिन पर मुझे नाज़ होगा ... 
रेत की तरह वक़्त अपनी  हाथों से छूटते इन पलों को  चाह के भी न रोक पाऊँगा …
कागज़ भींग चुका है ... आज भावुक सा हूँ .. कुछ और न लिख सकूंगा..
इस campus को .. कुछ रिश्तों को ... कुछ अश्कों को साथ समेटे हुए अलविदा कह रहा हूँ आपको ..