आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ...?
वो कायर व्यवस्था जहां किसी औरत पर हाथ उठा के हम खुद को वीर गाथा गाते हैं ...
वो समाज जो आज भी रूढ़ीवाद की दलदल में धसा
अपने मैले पैरों को तरफ देखता नहीं क्यूंकि वो उसे गंदे दिखाई देते हैं ...
वो समाज जिसकी चेतना उतनी ही शिथिल है , इतनी ही निर्जीव है
जितना मेरे गली में लगा हुआ खम्बा ..
वो हिलता नहीं .. पवन के हिलोरे उसे छु कर भी
जगा नहीं पाते .. नींद से .. वो वहीँ है बरसों से स्थिर ..
वो समाज जिसमे एक नव विवाहित जोड़ा यूँ ही गम हो जाते हैं
क्यूंकि समाज के बूढों ने उनका बहिष्कार कर दिया है
जहां कोख में मार दिया गया मेरे मोहल्ले की एक औरत की बच्ची को
आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम
वो समाज जो आज भी बच्चों के छोटे हाथों में
किताबों की जगह मैले बर्तन , भीख के कटोरे और बन्दूक थमा देता है
उन्हें अपाहिज बना देता है .. उन्हें बेच देता है व्यश्या घरों के हवाले
और जब यही बच्चे बड़े हो कर उससे इन सवालों का प्रश्न पूछते हैं
तो उन्हें अपने से काट कर फेक देता है
ऐसा की जैसे कोई हिस्सा हो शरीर का जो अब नश्वर हो चला है
आखिर किस समाज की बातें करते है हम ,
किस समाज की बातें करते हैं हम
जो स्त्रीयों को पहले वेश्या बनने पे मजबूर करता है और
उसके बाद उन्ही से रिश्ते तोड़ लेता है
उनके घर रात के अँधेरे में जाने वाले
दिन के उजालों में उसे ही जला कर मार देते हैं समाज के कालिक बता कर ...
आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ,
जहां का युंवक अनभिज्ञ है देश की समस्याओं से
उनसे लड़ना तो दूर .. वो जानना भी नहीं चाहता उनके पनपने के कारण को
वो व्यस्त है अपने नए Smart phone पर games खेलने में
मगन है अपने iPod पे गाने सुनने में
उसे क्या फर्क पड़ेगा
आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ,
जिसने जात-पात पर लोगों को सर पे बिठाया
और कईयों को पैरों तले कुचला ...
जहां किसी कमजोर औरत का बलात्कार कर दिया गया
अपनी वैशियत दिखाने के लिए ..
इतने मज़हब जिस देश में जन्में
आज , वही देश क्यूँ मज़हब की लड़ाईयां लड़ रहा है ?
गुजरात , उड़ीसा और अयोध्या के दिन देख रहा है
जहां कभी गाँधी , चैतन्य और राम ने जन्म लिया था
आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ,
आखिर किस आधुनिकता की बातें करते हैं हम
क्यूँ बखान करते हैं अपने उन्नति का ..
की जब बुनियादी प्रश्नों के हल आज भी ढून्ढ नहीं पाए हैं हम ..
आखिर किस समाज की बातें करते हैं हम ,
जो गाड़ियों , कारखानों के शोर में उस बूढी औरत की
आवाज़ नहीं सुनता जिसे सड़क पार करना नहीं आता ..
उसे वृद्ध आश्रमों के हवाले कर देता है ..
सच तो ये है की हम
आज भी जकडे हैं इन व्यर्थ के बंधनों में
समाज एक मृगमरीचिका है ,
एक ऐसे स्वार्थी setup की मिथ्या है
जिसके के पास कोई नैतिकता नहीं ..
जिसने अपनी चेतना खो दी है
उसकी आत्मा मर चुकी है
वो न तो मेरा है न तेरा ,
उसकी आवाज़ मर चुकी है ..
या सच कहें तो वो गूंगा हो चुका है ..
उसके आँखों पर अंधविश्वास की काली पट्टी पड़ी है
और उसके हाथ - पांव जकड़े हैं
उसके निजी मोह में ...
वो विद्रोह नहीं कर सकता क्यूंकि
वो कायर है ..
अपनी कायरता छुपाने के लिए
रिवाजों और बंधनों में रहने को मजबूर करता है हमें
ताकि हम प्रश्न न पूछें उसके हुकुमरानों से ..
समाज मैं भी हूँ , समाज तुम भी हो ,
वो सिर्फ भ्रष्ट नेताओं की देन नहीं ,
उसके बाशिंदे मामूली इंसान भी हैं
हाँ , ये सच हैं की वो निहत्ते हैं या शायद
अपने हथियारों , अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं
आओ ज़रा जागें इस नींद से ,
आओ ज़रा पानी फेंके ज़रा अपनी आँखों पर जोर से
ताकि फिर न सो सके इतनी लम्बी गहरी नींद
की कोई फिर न हम पर करके प्रहार भाग सके
की कोई फिर न कर सके दमन उन् मर्यादाओं का ...
की ताकि कोई भ्रष्ट नेता लूट न सके हमें ,
और खो जाए दुनिया की भीड़ में ..
ताकि कोई हमारे अधिकारों से यूँ ही खेल न सके
कटपुतलियों की तरह ..
खिलौने की तरह उसे तोड़-मरोर कर
फ़ेंक न दे उसे किसी gutter में ..
अगर हम समाज हैं
तो इसकी की मरम्मत का ज़िम्मा भी हमारे ही कन्धों पे है ..
ज़ख्म खाने पड़ेंगे तो खायेंगे .. घावों पे मरहम न लगायेंगे
उन्हें ज़िंदा रखेंगे ताकि उसकी टीस हर पल महसूस कर सकें हम
समाज की नीव अगर कमजोर हो चली है तो उसे मज़बूत करना भी हमारा फ़र्ज़ है ..