
आज क्षितिज की ओरे देखता हूँ तोह विचलित हो उठता हूँ ये सोच कर की जीवन में क्या खोया , क्या पाया ... एक मृगतृष्णा की तरह ये जीवन मुझे सदा अपनी ओर खीचता चला गया और मैं चलता चला गया .. मैंने रुकना चाहा पर उसने मुझे रुकने न दिया ... आज , समय थोडा रुक सा गया प्रतीत होता है ... वक़्त थम्म सा गया मालुम होता है ... शायद नभ के समाहीन पटल पे कोई तारा टूट रहा है .. शून्य में लुप्त हो रहा है ...बुझ रहा एक निशा का दीप दुलारा ..देखो टूट रहा तारा .. हुआ न क्रंदन ... किसी ने न उसकी सिसकियाँ सुनी ...किसी ने ना उसकी व्यथाएं सुनी .. पर वो टूट गया ... नभ में अपनी यादें छोड़ गया ....पर तारों के टूटने पर नभ ने कब नीर बहाए हैं ... देखो टूट रहा तारा .....देखो टूट रहा तारा ... देखो अपना कोई छूट रहा है ... ।

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